प्रतियोगी जीवन का साथी: सामाजिक अनुसन्धान ( शोध) के प्रमुख चरण

सामाजिक अनुसन्धान ( शोध) के प्रमुख चरण

सामाजिक अनुसन्धान (शोध) के प्रमुख चरण

 


सामाजिक अनुसन्धान ( शोध) का अभिप्राय समाज, सामाजिक जीवन, सामाजिक घटनाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक समस्याओं आदि का वैज्ञानिक अध्ययन एवं विश्लेषण है। सामाजिक अनुसन्धान द्वारा इनसे सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त किया जाता है। अधिकतर इसका प्रयोग सामाजिक घटनाओं एवं सामाजिक समस्याओं के कारणों एवं परिणामों को समझने के लिए किया जाता है ताकि उनका समाधान किया जा सके।


 

 "अनुसन्धान वस्तुओं, अवधारणाओं तथा प्रतीकों आदि को कुशलतापूर्वक व्यवस्थित करना है, जिसका उद्देश्य सामान्यीकरण द्वारा ज्ञान का विकास, परिमार्जन अथवा सत्यापन होता है, चाहे वह ज्ञान व्यवहार में सहायक हो अथवा कला में।" 

' सामाजिक विज्ञानों का विश्वकोश' ( Encyclopaedia of Social Science) में सामाजिक अनुसन्धान को इन शब्दों में परिभाषित किया गया है।






" आदर्श रूप में अनुसन्धान एक समस्या का सावधानीपूर्वक, निष्पक्षतापूर्वक किया गया अध्ययन होता है जो कि तथ्यों की विषमता, उनके स्पष्टीकरण व सामान्यीकरण पर निर्भर है।"

✍️ सी० वी० गुड ( C. V. Good) ने ' शिक्षा का शब्दकोश ' (Dictionary of Education) में इस परिभाषा को लिखा है।


 



💮💮सामाजिक अनुसन्धान के प्रमुख चरण💮💮

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सामाजिक अनुसन्धान अथवा वैज्ञानिक अन्वेषण के कुछ चरण हैं जिन्हें इसी क्रम में सभी वैज्ञानिक अध्ययनों में अपनाया जाता है। इसीलिए यह कहा जाता है कि समाजशास्त्रीय ज्ञान या किसी भी ज्ञान को वैज्ञानिक बनने के लिए कुछ निश्चित चरणों से होकर गुजरना पड़ता है। ऐसे प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं-




जॉर्ज ए० लुण्डबर्ग के अनुसार:-

 

(1)

कार्यवाही प्रकल्पना।
(2)तथ्यों का अवलोकन तथा लेखन।
(3)संकलित तथ्यों का वर्गीकरण व संकलन।
(4)नियम - निर्माण अथवा सामान्यीकरण।







ऑगस्ट काॅम्ट के अनुसार:-

(1)विषय का चयन।
(2)अवलोकन द्वारा प्रत्यक्ष होने वाले तथ्यों का संकलन।
(3)तथ्यों का वर्गीकरण।
(4)तथ्यों का परीक्षण।
(5) नियमों का प्रतिपादन।





पी० वी० यंग के अनुसार:-
(1)प्राकल्पना का निर्माण करना।
(2)तथ्यों का अवलोकन, एकीकरण तथा लेखन।
(3)संकलित तथ्यों का श्रेणियों तथा अनुक्रमों में वर्गीकरण।
(4)वैज्ञानिक सामान्यीकरण अर्थात् नियमों निर्माण करना।





(1) समस्या का चयन -

                                 प्रत्येक अनुसन्धान के क्षेत्र में समस्या - निर्धारण का विशेष महत्त्व होता है। यह अनुसन्धान का प्रथम चरण होने के साथ - साथ एक महत्त्वपूर्ण चरण भी है। उसकी सफलता पर पूरे अनुसन्धान की सफलता निर्भर करती है। अनुसन्धान योग्य उचित समस्या के निर्माण को आधे अनुसन्धान के बराबर माना गया है। समस्या के निर्माण के समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि यह अन्वेषण योग्य हो अर्थात् समस्या ऐसी नहीं होनी चाहिए जिसका समाधान अनुभवाश्रित अध्ययन द्वारा सम्भव ही नहीं है।




(2) प्राकल्पना या उपकल्पना का निर्माण -

                               सामाजिक अनुसन्धान का दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण उपकल्पना का निर्माण करना है। प्रत्येक सामाजिक अनुसन्धान की पूर्ण प्रक्रिया का प्रमुख उद्देश्य उपकल्पना की सत्यता - असत्यता की वैज्ञानिक जांच करना ही होता है। उपकल्पना एक काल्पनिक प्रस्तावना है जिसकी जॉच की जा सकती है। अधिकांश समाजशास्त्रियों का कहना है कि हम अनुसन्धान में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते, यदि हम सम्भावित व्याख्या अथवा समस्या के समाधान के विषय में पहले से न सोचें। काल्पनिक व्याख्याओं का स्रोत विषय - वस्तु तथा भूतकालीन ज्ञान है जब इनका निर्माण प्रस्तावनाओ के रूप में किया जाता है तो इन्हे उपकल्पना कहा जाता है। परन्तु इन प्रस्तावनाओ‌ं की प्रकृति ऐसी होनी चाहिए जिनमें इनकी प्रामाणिकता की जांच हो सके। यदि किसी उपकल्पना की प्रामाणिकता की जांच नहीं की जा सकती तो हम उस प्रस्तावना को उपकल्पना नहीं कह सकते।





(3) चरों का चयन -

                                        चर का अर्थ है- परिवर्तित होने वाला विषय या तत्त्व। समस्या से सम्बन्धित अनेक विषय हो सकते हैं तथा अनुसन्धाकर्त्ता प्रत्येक विषय का अध्ययन नहीं कर सकता, इसलिए उसे अनुसन्धान - समस्या से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण चरों का चयन करना पड़ता है जिन्हें वह अपनी समस्या के संदर्भ में अधिक अर्थपूर्ण तथा महत्त्वपूर्ण मानता है। चरों का चयन किस प्रकार किया जाएगा, इसके लिए कोई विशेष नियम अथवा सिद्धान्त नहीं है। समाजशास्त्री को एक सामाजिक तथ्य की व्याख्या करने के लिए विभिन्न अन्य चरों को चुनना पड़ता है जिससे कि वह अमुक सामाजिक तथ्य की समाजशास्त्रीय व्याख्या कर सके।





(4) निदर्शन -

                               सामाजिक अनुसन्धान में निदर्शन एक महत्त्वपूर्ण चरण है जिसके द्वारा हम अध्ययन - क्षेत्र तथा अध्ययन की जांच वाली इकाइयों का चयन करते हैं। निदर्शन समग्र का एक छोटा भाग है जो समग्र का प्रतिनिधित्व करता है। अनुसन्धाकर्त्ता सम्पूर्ण समग्र का अध्ययन नहीं कर सकता। यदि हम समग्र का अध्ययन कर भी सकते हैं तो जानबूझकर ऐसा नहीं करते क्योंकि जब समग्र के एक अंग का अध्ययन पर्याप्त है तथा उससे वैसे ही वैज्ञानिक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं जैसे सम्पूर्ण समग्र के अध्ययन से तो सम्पूर्ण समग्र का अध्ययन क्यों जाए। साथ ही अनुसन्धाकर्त्ता के पास सीमित समय तथा धन होता है और समग्र की विशालता के कारण वह समग्र का अध्ययन न करके उसके एक छोटे भाग का अध्ययन करता है जो सम्पूर्ण समग्र का प्रतिनिधित्व करता है।





(5) सूचनाओं या तथ्यों का संकलन-

                                   इकाइयों का चयन कर लेने के बाद उपकल्पना से सम्बन्धित सूचनाओं का संकलन किया जाता है। सूचनाओं का संकलन अनेक प्रविधियों की सहायता से किया जाता है। 

तथ्यों का संकलन करने के लिए मुख्य रूप से दो स्रोत्रों का उपयोग किया गया है- 


सूचनाओं या तथ्यों का संकलन

(क) ऐतिहासिक स्रोत(ख) क्षेत्रीय अथवा प्राथमिक स्रोत




 (क) ऐतिहासिक स्रोत-

                         समाजशास्त्रियों का कहना है कि किसी भी अध्ययन - वस्तु या समस्या के सम्बन्ध में तथ्यों को एकत्रित करने का एक ऐतिहासिक तरीका है। समाजशास्त्रियों को चाहिए कि वे प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों, प्राचीन नरकंकालों तथा प्राचीन खंडहरों का अवलोकन करें। उनको प्राचीन सभ्यताओं तथा संस्कृतियों का भी अवलोकन करना चाहिए। ऐसा करने से वे समस्या से सम्बन्धित अनेक तथ्यों का संकलन कर सकेंगे।



(ख) क्षेत्रीय अथवा प्राथमिक स्रोत-

                                                              

         तथ्यों के संकलन करने का एक दूसरा तरीका भी है। समाजशास्त्रियों को चाहिए कि अवलोकन, साक्षात्कार, अनुसूची - प्रणाली आदि के द्वारा विषय - वस्तु के सम्बन्ध में तथ्यों का संकलन करें और संकलित तथ्यों के आधार पर ही विषय - वस्तु के सम्बन्ध में अध्ययन करने के कार्य को आगे बढ़ाएँ।




 (6) एकत्रित तथ्यों का वर्गीकरण तथा सारणीयन-

                                         इस चरण के अन्तर्गत एक समाजशास्त्री अपने द्वारा संकलित तथ्यों को अध्ययन - वस्तु के पृथक् - पृथक् अंगों के अनुसार वर्गीकृत करता है ताकि वह पृथक् - पृथक् इकायों के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके अध्ययन - वस्तु का समग्र रूप से पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो सके। तथ्यों का वर्गीकरण करने से संकलित तथ्यों को सरल कर लिया जाता है, किन्तु इस प्रकार के वर्गीकरण में एक समाजशास्त्री के पूर्ण सतर्कता रखनी होती है। जितनी योग्यता या जितने धैर्य से एक समाजशास्त्री अपने द्वारा संकलित तथ्यों का वर्गीकरण करता है उतना ही उसका अनुसन्धान कार्य सरल हो जाता है। तथ्यों का आवश्यक के अनुसार वर्गीकरण करना ही एक समाजशास्त्री की सफलता का द्योतक है।





(7) तथ्यों का निर्वचन तथा विश्लेषण -

                                      तथ्यों को सारणियों के रूप में प्रस्तुत करने के बाद उनका विश्लेषण किया जाता है ताकि निष्कर्ष निकाले जा सकें। संकलित तथ्यों के सारणीयन से पता चल जाता है कि किन चरों में परस्पर सम्बन्ध है। निर्वचन के समय काफी सावधानी रखनी पड़ती है तथा निर्वचन का आधार केवल तथ्य ही होने चाहिए। तथ्यों के सम्बन्ध में निर्वचन सांख्यिकीय त्रुटियों को सामने रखकर किया जाता है। किसी भी प्रकार के अध्ययन क्यों न हों, निर्वचन का उत्तरदायित्व अनुसंधानकर्त्ता के कन्धों पर है। 




(8) सामान्यीकरण या नियमों का प्रतिपादन -

                          सामान्यीकरण के अन्तर्गत एक समाजशास्त्री प्राकल्पना, अवलोकन, संकलन तथा वर्गीकरण के आधार पर अध्ययन - वस्तु से सम्बन्धित विभिन्न नियमों का निर्माण करता है। अध्ययन - वस्तु से सम्बन्धित विभिन्न नियमों का निर्माण करने के लिए एक समाजशास्त्री विभिन्न पद्धतियों का अनुसरण करता है। एक समाजशास्त्री नियम प्रतिपादन का कार्य इस ढंग से करता है कि वह अपनी अध्ययन - वस्तु के सम्बन्ध में निश्चित, स्पष्ट तथा अपरिवर्तनशील नियमों का निर्माण करे। उसके द्वारा प्रतिपादित नियम शाश्वत, प्रमाणिक एवं सत्यापन लिये हुए हों और उनका परीक्षण भी किया जा सके।




(9) प्रतिवेदन अथवा रिपोर्ट लिखना -

                               सामाजिक अनुसन्धान का अंतिम चरण प्रतिवेदन तैयार करना है। प्रतिवेदन को इसलिए महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है क्योंकि इसमें अन्य सभी चरणों का संपूर्ण विवरण दिया जाता है। विवरण इस प्रकार से दिया जाता है ताकि लेखक जो कहना चाहता है, पढ़ने वाले उसे समझ सकें। अध्ययन के समय आई कठिनाइयों तथा अन्य अनुभवों का भी संक्षेप में विवरण दिया जाता है। प्रतिवेदन के लेखन का एक विशिष्ट उद्देश्य होता है तथा इसे लिखते समय अनेक बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है क्योंकि इसका उद्देश्य अनुसंधानकर्त्ता द्वारा स्वयं को सम्बोधित न करके अन्य व्यक्तियों को अपने अनुसन्धान की जानकारी देना है। रिपोर्ट को विषय के विशेषज्ञों से लेकर विषय के छात्रों, अन्य रुचि रखने वाले व्यक्तियों तथा अनुसन्धान उपभोक्ता द्वारा पढ़ा जाना है इसलिए इसे लिखने में काफी सावधानी रखनी पड़ती है।






इन्हें भी देखें-



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